मंडी ( हिमाचल वार्ता न्यूज़ ) विदेशों पर बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक की निर्भरता समाप्त होगी। भांग के पत्ते और बीज दवा बनाने के काम आते थे। पौधों के डंडों को फेंका या जलाया जाता था। अब भांग का पूरा पौधा काम आ सकेगा। मंडी, हंसराज सैनी: भांग का डंडा यानी डंठल अब बेकार नहीं होगा। इससे बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक बनेगा। पर्यावरण को संबल मिलेगा। रोजगार के अवसर सृजित होंगे। विदेशों पर बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक की निर्भरता समाप्त होगी। भांग के पत्ते और बीज दवा बनाने के काम आते थे। पौधों के डंडों को फेंका या जलाया जाता था। अब भांग का पूरा पौधा काम आ सकेगा। पत्तों और बीज से पहले की तरह दवा बनेगी।रेशे से कपड़ा और बाकी बचे डंठल से बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक बनेगा। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) मंडी के स्टार्टअप ने डंढल से बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक बनाने की तकनीक विकसित की तकनीक है। हरियाणा के फरीदाबाद की उखी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को स्टार्टअप के तहत आइआइटी मंडी ने इसी वर्ष 25 लाख रुपये की वित्तीय सहायता दी थी। कई राज्य सरकारें अब भांग की खेती को वैध करने पर काम कर रही है। ऐसे में इस तकनीक से अधिक लोगों को रोजगार मिलेगा।
कीटनाशक व पानी के उपयोग की नहीं पड़ेगी जरूरत कपास की तरह भांग के उत्पादन में बीज,खाद,कीटनाशक और पानी की जरूरत नहीं पड़ेगी। भांग देश भर में प्राकृतिक रूप से उगती है। कपास के उत्पादन में बड़े पैमाने पर कीटनाशक का प्रयोग होता है। इससे देश में हर वर्ष सैकड़ों किसानों की मौत होती है। एक किलोग्राम कपास के उत्पादन में 4000 से 5000 लीटर पानी की आवश्यकता रहती है। देश भर में भूमिगत जलस्तर में पहले ही भारी गिरावट आ चुकी है। भांग की खेती वर्षा के पानी से भी संभव है।
चार गुणा अधिक रेशा कपास के मुकाबले भांग के पौधे से चार गुणा अधिक रेशा निकलता है। इससे कपड़ा बनाने के लिए धीरे धीरे कपास पर निर्भरता समाप्त होगी। कपास की फसल तैयार होने में छह से आठ माह का समय लगता है। भांग का पौधा चार माह में तैयार हो जाता है। एक बीघा में भांग का पांच से छह टन डंठल तैयार होता है।
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Saturday, May 10