{धर्मशाला} 06 फरवरी {हिमाचलवार्ता न्यूज़}:-केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डॉ. दीपक पंत ने बताया कि अपने एक विद्यार्थी वरुण धीमान के साथ उन्होंने हिमाचल में पाई जाने वाली घोंघों की दो प्रजातियों पर अध्ययन किया है। इनका केंचुओें या मधुमक्खियों की तरह सफल पालन किया गया है। केंद्रीय विश्वविद्यालय परिसर में इनके पालन के लिए पिट बनाए गए।
आप बरसात में रास्तों में यहां-वहां सरकते हुए घोंघे अक्सर देखते होंगे, जो कई बार पांव के नीचे पिस जाते हैं। ये अपने पीछे एक चिपचिपा पदार्थ छोड़ते हैं, जिसे स्लाइम कहते हैं। ये सामान्य जीव नहीं हैं। इनसे निकले इस चिपचिपे पदार्थ में भूल जाने की बीमारी अल्जाइमर, पागलपन का रोग डिमेंशिया का इलाज करने की क्षमता है। कटने या जलने से होने वाले जख्मों को ठीक करने या मस्सों को खत्म, चेहरों के गड्ढे भरने वाले रसायन इसमें होते हैं। सौंदर्य प्रसाधन बनाने के लिए भी स्लाइम इस्तेमाल हो सकता है।
यह जानकारी केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डॉ. दीपक पंत ने दी। डॉ. पंत ने बताया कि अपने एक विद्यार्थी वरुण धीमान के साथ उन्होंने हिमाचल में पाई जाने वाली घोंघों की दो प्रजातियों पर अध्ययन किया है। इनका केंचुओें या मधुमक्खियों की तरह सफल पालन किया गया है। केंद्रीय विश्वविद्यालय परिसर में इनके पालन के लिए पिट बनाए गए। अब विश्वविद्यालय ने तय किया है कि अगर किसान इनका पालन करना चाहते हैं तो उन्हें प्रशिक्षण भी दिया जाएगा
घोंघों को नुकसान पहुंचाए बगैर उनसे एकत्र किया जा सकता है स्लाइम
डॉ. पंत ने बताया कि घोंघों को नुकसान पहुंचाए बगैर ही इनसे स्लाइम निकाला जा सकता है। नाक के रेशे की तरह दिखने वाले इस स्लाइम को इन घोंघों से लकड़ी की खुरदरी सतह पर चलवाकर एकत्र करना आसान होता है। हाईजीन करके इससे प्राप्त यह द्रव्य फार्मासियुटिकल की तरह कॉस्टेमिक वस्तुओं के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं। मैक्सिको में तो इसका बहुत इस्तेमाल होता है।
हिमाचल में पाए जाते हैं दो तरह के घोेंघे
हिमाचल में दो तरह के घोंघे पाए जाते हैं। इनमें से एक गार्डन स्नेल है, जो बगीचों, जंगल या रास्तों में पाया जाता है, जबकि दूसरा पोंड स्नेल है जो तालाबों मेें पाया जाता है। ठंड या गरमी में यह जमीन के भीतर चले जाते हैं।